दुनिया बनाने का क्या मकसद हो सकता है

  चलिये पहली संभावना पर बात करते हैं— कि यह पूरा ऑब्जर्वेबल यूनिवर्स एक ठोस हकीकत है। अब यहां आपको यह सोचना है कि हमें बनाने के पीछे के दोनों व्यू, यानि या तो सबकुछ हमारे लिये बनाया गया है या हमें उसने अपने या अपने बीच के लोगों के मनोरंजन के लिये बनाया है— क्या इस सूरत में यह वजनदार कारण लगते हैं कि हम इतने बड़े यूनिवर्स के एक लगभग ‘नथिंग’ हिस्से पर ही एग्जिस्ट कर रहे हैं और मजे की बात यह है कि हमारी न अपने आसपास के प्लेनेट्स पर पंहुच ही है और न सिर्फ अपने सोलर सिस्टम से बाहर निकलने लायक उम्र हम रखते हैं— बाकी गैलेक्सी तक पंहुच तो कल्पना से भी बाहर है।

  इसे एक उदाहरण से समझिये कि एक बड़े से हाल में आप एक छोटे से बाक्स में कुछ बैक्टीरिया रखिये, जिनके पास उस बाक्स से निकलने लायक भी न क्षमता हो न उम्र— उन्हें रखने का आपका मकसद कुछ भी हो, पर आपको पता है कि उनके लिये वह अकेला बाक्स ही काफी है लेकिन फिर भी आप वैसे ही लाखों बाक्स से वह पूरा हाल भर देते हैं जिनका कोई उपयोग ही न हो— क्या आपको अपना यह कार्य तर्कसंगत लगेगा?

  किसी रेगिस्तान में जा कर खड़े हो जाइये और सोचिये कि दसियों किलोमीटर दूर तक फैली रेत के बीच एक कण पर आपने कुछ माइक्रो बैक्टीरिया बिठाये हैं और वह बस इसलिये हैं कि या तो आपकी इबादत करें या उनका उद्देश्य आपकी दुनिया के लोगों का मनोरंजन है या फिर उनके जरिये आप कोई एक्सपेरिमेंट कर रहे हैं— लेकिन इस एक काम के लिये आपने खरबों-खरबों कणों वाला दसियों किलोमीटर लंबा चौड़ा रेगिस्तान उस एक कण के आसपास बसाया है तो क्या आप खुद अपने कार्य को तर्कसंगत ठहरा पायेंगे?

  अगर हम इस पूरे यूनिवर्स को ठोस हकीकत भी मानते हैं और ईश्वर को भी मान्यता देते हैं तो यकीन जानिये कि फिर हम इस रचना के पीछे उसके मकसद को समझने में सिरे से फेल हैं। कम से कम उपरोक्त दोनों तीनों कारण तो हर्गिज नहीं हो सकते।

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दूसरी सम्भावना: आधी हकीकत और आधा फ़साना

  अब आधी हकीकत और आधा फसाना वाली दूसरी संभावना पे आइये यानि हाफ रियल हाफ इल्यूजन। कुछ विचारकों की नजर में हकीकत बस इतनी है कि हम जिस सौरमंडल और गैलेक्सी में रहते हैं, बस यह रियल है और बाकी स्पेस जो हमें दिखता है वह इल्यूजन है। इसे दूसरे तरीके से भी समझ सकते हैं। 

  हम आकाश में एक अरब प्रकाश वर्ष दूर के एक सितारे को देखते हैं तो असल में हम एक अरब वर्ष पहले भेजी फोटान्स से बनी एक इमेज भर देख रहे होते हैं, जबकि हकीकत में हो सकता है कि वह सितारा लाखों करोड़ों साल पहले ही खत्म हो चुका हो। स्पेस में हम जो कुछ भी देखते हैं वह बस छवि भर होती है जो एक घंटा पुरानी हो सकती है और करोड़ों अरबों वर्ष पुरानी भी— रियल में उसके होने की कोई गारंटी नहीं।

  यह हमारी सीमितता है कि हम न अपने सोलर सिस्टम से बाहर निकलने में सक्षम हैं और न ही किसी भी तारे, ग्रह या पिंड का एक्चुअल टाईम व्यू देख पाने में। मतलब एक संभावना के तौर पर हम मान भी लें कि कभी हम रोशनी की गति से चल पायेंगे तो हमें अपनी गैलेक्सी से निकलने में चौदह हजार साल लग जायेंगे, जबकि पृथ्वी पर तो इस बीच एक लाख एक हजार साल गुजर जायेंगे।

  यानि यह हमारी लिमिटेशन है और इसे जानते हुए क्रियेटर ने हमारे आसपास इस ऑब्जर्वेबल यूनिवर्स का इल्यूजन क्रियेट कर दिया हो तो इसकी संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। स्पेस में कुछ रेडियो सिग्नल्स और फोटॉन्स के सिवा दूसरा जरिया भी क्या है हमारे पास?

  और जो स्पेस, टाईम और मैटर को मिला कर इतनी जटिल संरचना तैयार कर सकता है— उसके लिये ऐसा इल्यूजन तैयार करना, या धोखा देने वाले फोटॉन्स क्रियेट करना भला कौन सा मुश्किल होगा। इस थ्योरी को मानने से यह चीज क्लियर हो सकती है कि हमारी उत्पत्ति का कारण असल में किसी तरह का एक्सपेरिमेंट या मनोरंजन हो सकता है… आखिर हम इंसान भी इस प्लेनेट अर्थ पर तरह-तरह के कंप्यूटर या रियल वर्ल्ड सिमुलेशन गेम बना कर ऐसा ही करते हैं।

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तीसरी सम्भावना: हम एक सिमुलेशन प्रोग्राम में हैं

  अब आइये तीसरी थ्योरी पे जो कहती है कि हम बस एक सिमुलेशन प्रोग्राम में जी रहे हैं। सिमुलेशन दरअसल एक प्रोग्राम या सॉफ्टवेअर को कहते हैं जिसमें हम कोड्स के माध्यम से एक ऐसी दुनिया क्रियेट करते हैं जो बिलकुल हमारे जैसी होती है— जहां हम वह सब नियम अप्लाई कर कर सकते हैं जो रियल वर्ल्ड में होते हैं… मसलन ग्रेविटी या गेम के कैरेक्टर का ठोस पदार्थ से पार न हो पाना। इन्हें रियल वर्ल्ड सिमुलेशन गेम कहते हैं। सिमुलेशन हाइपोथेसिस का विचार 2003 में निक बोस्ट्रम ने दिया था, जिसे सिमुलेशन आर्ग्यूमेंट कहते हैं— संभावना के तौर पर स्टीफन हाकिंग ने भी सिमुलेशन हाइपोथेसिस को सही माना था।

  अब सिमुलेशन कांसेप्ट को अगर संभावना के तौर पर रखें तो इसके दो लक्ष्य होते हैं— या मनोरंजन या एक्सपेरिमेंट। अगर हम इस थ्योरी के साथ स्टिक करते हैं तो फिर हमारे गढ़न का मकसद इन्हीं दो में से एक हो सकता है।

  इसे समझने के लिये हमें फिर से एक उदाहरण लेना होगा— अपना मोबाइल सामने रखिये और कोई गाना या फिल्म चलाइये। समझिये कि यह क्या है— उसमें पानी भी दिख रहा है, ठोस धातु से बनी चीजें भी दिख रही हैं और गोश्त पोश्त से बने इंसान भी। ऐसा कैसे होता है? इन अलग-अलग चीजों को दर्शाने के लिये क्या स्क्रीन के पीछे अलग-अलग तत्व इस्तेमाल होते हैं— जी नहीं, यह सब एक तरह के डांसिंग पिक्सल्स हैं जो कलर चेंज करते अलग-अलग चीजें दिखाते हैं। यानि स्क्रीन पर चीजें आपको अलग-अलग भले दिखें लेकिन इनके मूल में एक ही तत्व है।

  ठीक इसी तरह अपने आसपास आपको जो भी अलग-अलग चीजें दिखाई देती हैं वे सब एक ही तत्व के अलग-अलग संयोजन से बनी होती हैं और वह होता है एटम, जिसके अंदर और भी कई इकाई होती हैं। स्टिंग थ्योरी के अनुसार पदार्थ की सबसे सूक्ष्म इकाई स्टिंग होती हैं जो अलग-अलग पैटर्न पर वाइब्रेट करती हैं और उनके यह अलग पैटर्न ही अलग-अलग पदार्थ का निर्माण करते हैं।

  यानि दिखने में भले कार और पानी में जमीन आसमान का फर्क हो लेकिन इसके मूल में एटम्स ही मिलेंगे और एक थ्योरी के अनुसार ऐसी हर चीज एक मैथमेटिकल इक्वेशन रखती है, जिसे तोड़ कर जीरो और वन की फिगर के बाइनरी कोड में कनवर्ट किया जा सकता है।

  हमारा दिमाग असल में एक सॉफ्टवेयर की तरह काम करता है जो आंख के जरिये सामने दिखती किसी भी चीज को बाइनरी कोड के माध्यम से पहचान कर हमें दिखाता है और कभी-कभी किन्हीं अलग स्थितियों में, मसलन नशे की ही— वह इस बाइनरी कोड को ठीक से डिटेक्ट नहीं कर पाता और तब हमें रस्सी की जगह सांप दिखाई देने लगता है।

सिमुलेटिंग प्रोग्राम की कोडिंग दिमाग की तरह होती है   

इन कोड्स के माध्यम से ही एकदम रियल जैसे दिखने वाले कंप्यूटर गेम या सिमुलेटिंग प्रोग्राम बनाये जाते हैं और जिस तरह इन गेम्स या प्रोग्राम्स में कैरेक्टर एक्ट कर रहे होते हैं, ठीक वैसे ही इस थ्योरी के हिसाब से हम एक्ट कर रहे हैं। अब यहां आप सवाल उठा सकते हैं कि जब हम हकिकत में खुद को खाता पीता, हगता मूतता, मेहनत या ऐश करता, सुख दुख, बीमारी, मौत महसूस करता पा रहे हैं तो यह कल्पना कैसे हो सकती है।

  इसके लिये आपको रात सोते वक्त यह प्रयोग करना होगा कि आप रात भर जो सपने देखें— अगली रात सुबह उठते ही उन्हें याद करें और फिर खुद से पूछें कि क्या सपने में महसूस हुई वह सारी फीलिंग्स असली नहीं थीं? आपने सपना देखा, यह आपको तब महसूस हुआ जब आप सुबह उठे— वर्ना सपने में आप इस बात को महसूस कर ही नहीं सकते कि आप सपना देख रहे हैं। यह हमारी चेतना की कारीगरी है।

चेतना ही इस सिमुलेशन हाइपोथेसिस का सबसे बड़ा फच्चर है— इसके लिये दावा किया जाता है कि यह सुपर नेचुरल है और इसे बनाया नहीं जा सकता, बाकी चाहे सबकुछ बना लिया जाये। फिलहाल वैज्ञानिक इसी दिशा में काम कर रहे हैं और पिछले साल ‘सोफिया’ नाम की रोबोट इसी दिशा में एक कदम थी।

  वैसे ‘टर्मिनेटर’ नाम की मूवी का कांसेप्ट भी यही था जहां स्काईनेट नाम का कंप्यूटर प्रोग्राम खुद की चेतना विकसित कर लेता है और पृथ्वी पर अपना कब्जा कर लेता है। इसे किसी गेम के उदाहरण से भी दूसरे तरीके से समझ सकते हैं जहां दो प्लेयर्स बाक्सिंग करते हैं, या चेस/क्रिकेट आदि खेलते हैं और एक प्लेयर पर आपका होल्ड रहता है, जबकि दूसरे पर कंप्यूटर अपना दिमाग लगाता है। यह भी तो चेतना का ही एक छोटा रूप है, आगे हो सकता है दोनों प्लेयर्स को उनका अपना दिमाग दे दिया जाये और वे खुद से एक्ट करें और आप बाहर से बस दर्शक के तौर पर देखें और उनकी हार जीत पर सट्टा लगायें।

  ‘आर्टिफिशल इंटेलिजेंस’ को ज्यादातर लोग ‘टर्मिनेटर’, या ‘आई रोबोट’ कांसेप्ट की वजह से हालाँकि खतरनाक मानते हैं लेकिन इसके बावजूद इस दिशा में काम चल रहा है और जिस दिन हम स्थाई रूप से इस चेतना को बनाने में कामयाब हो गये, इस थ्योरी का दावा और भी पुख्ता हो जायेगा कि हम असल में एक सिमुलेटिंग प्रोग्राम में हैं और हमें डिजाईन करने वाला किसी एक्सपेरिमेंट या मनोरंजन के लिये हमें बना कर चुपचाप तमाशा देख रहा है— लगभग ठहरे हुए वक्त में और हम यहां साल पर साल गुजारते चले जा रहे हैं।

  क्या आपने बेहतरीन ग्राफिक्स और विजुअल्स वाला वीआर हेडसेट यूज किया है— वह 360 डिग्री व्यू मे जो भी दिखाता है वह वर्चुअल रियलिटी होती है और आप भूल जाते हैं कि हकीकत में आप कहां हैं। यानि अप अपने बेडरूम के सपाट फर्श पर भले खड़े हों लेकिन अगर प्रोग्राम में आप किसी ऊबड़ खाबड़ जगह दिख रहे हैं तो आप एग्जेक्टली वैसा ही महसूस करेंगे। यानि आपका शरीर कहीं है लेकिन दिमागी तौर पर आप कहीं पंहुच जाते हैं और तब जो देखते हैं, आपके लिये वही हकीकत होता है।

  इसे अगर आपने ‘अवतार’ फिल्म देखी है तो बेहतर ढंग से समझ सकते हैं जहां मूल कैरेक्टर एक मशीन में रहता है और उसकी चेतना को एक उसी ग्रह के वातावरण के हिसाब से डिजाईन किये ‘अवतार’ में ट्रांसफर कर दिया जाता है— यह जिन सिग्नल्स की मदद से संभव होता है, वे बाइनरी कोड में लिखे जा सकते हैं। एक अनैलेसिस के मुताबिक जिस एल्गोरिथम और पैटर्न से गूगल आपकी इच्छित सूचना सर्च करता है, आपका दिमाग भी वही पैटर्न यूज करता है— यानि दिमाग के काम करने के तरीके का एक कोड हमारे पास है तो पूरी चेतना भी तो इसी रूप में हो सकती है जिसे कहीं और से आपरेट किया जा रहा हो।

Written by Ashfaq Ahmad